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Showing posts from May, 2018

जिसको जिसकी कहनी थी

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डॉ. कीर्ति पाण्डेय जिसको जिसकी कहनी थी वो कहते सुनते चले गये मेरी क ही रही मन के अंदर हम उलझन बुनते चले गये ।     राह मिली मंजिल कहा थी  मंजिल थी तो राह नहीं  मंजिल और रहों के बीच  हम खुद को खोते चले गये।  प्यास जगी तो नीर नहीं था  नीर दिखा दरिया गहरा  प्यास बूझाते कैसे हम  डूबते तैरते चले गये।

एक मुलाकात हो गई होती

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डॉ कीर्ति पाण्डेय एक मुलाकात  हो गई होती दिल की सारी बात  हो गई होती लब कहते  या न कहते कुछ भी अरमानों की रात  हो गई होती जुस्तजू हम तो  रखते हैं मिलन की थोड़ी आरजू  तुमने भी की होती

तुम गुनगुनाओ तो

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डॉ. कीर्ति पाण्डेय तुम गुनगुनओ तो गीत लिखेंगे  जज्बातों को हम मीत लिखेंगे  जुनूँ है मिलन का सुकूँ जाने लगा  तेरी जुस्तजू में मजा आने लगा  तुम जो मिलो तो मन की प्रीत कहेंगे तुम .. ... अनोखी छवि दिल चुराने लगा  मुस्कुराना तेरा लुभाने लगा  मधुर बाँसुरी के संगीत सुनेंगे तुम . ....

अतृप्त अभिलाषाएं

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डॉ. कीर्ति पाण्डेय सबने सब करके देख लिया  फिर भी मानव अतृप्त रहा  कोई भक्त बना राधा-कृष्ण का  कोई प्रेम वासना में लिप्त रहा। सबने ...... सबमें बात सिर्फ एक निकली सत्य  परिभाषित किये सबने ही तथ्य  जीने आया था जीवन को  जीने की कला ही भूल गया। सबमें .... कोई मालिक बन मद में रहा  कोई सेवक बन वेदना सहा  अनुचर की न वेदना घटी  न स्वामी कष्ट को मिटा लिया  सबने .... धन वैभव अति मिल गया जिसे  सुख की निद्रा को तरस गया  जो दीन-हीन अति दुखिया था  चंद रुपयों के खातिर ही जिया  सबने ........

आज के समाज में

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पाषाण हृदय कह रहे हैं  प्रेम का प्रमाण दो  चीरते हैं संवेदनाओं को कहते  भावनाओं को मान दो पाषाण ..... ये क्या हो रहा है  आज के समाज में  घूमते हैवान हैं  यहाँ इंशा-पोशाक में  माँगते हैं मुझसे  तुम घृणा को अपना प्यार दो  पाषाण ..... कहते-फिरते हैं  कामनाओं से परे हैं हम  सत्य तो ये है  सात्विकता से भटके हैं हम  चाह नहीं कोई,  कहके छलते हैं फिर आज को  पाषाण ....... इक द्रौपदी की लाज उड़ी,  द्वापर के इक राज में  कितनी ही अबला लुटी हैं,  कलयुगी इस जाल में  बोलते दुष्कर्म न हो तो  कुकर्म को अब थाम लो  पाषाण ...... द्वापर और कलयुग को  हमारा मिथ्या दोष है  रोको कामना को  ये तो कामना का दोष है  खुद बन रहे दुःशासन  कहते शासन में कुछ रोक हो  पाषाण ..... स्वरचित- डॉ. कीर्ति पाण्डेय

माँ प्रेम की मधुशाला

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माँ की गोद अच्छी  थी  मैं क्यों खड़ी हो गई  वो ह्रदय गीत सुनाती  मैं मंद-मंद मुस्काती  दुनियाँ की बातें सुनकर  मैं क्यों उससे दूर हो गई  माँ .. .. अपनी बातें मनवाने को  मैं जिद्दी-सी हो जाती थी  हर बात माँ की सच्ची थी  क्यों अनसुनी हो गई  माँ . ... नहीं होना था बड़ा मैं क्यों बड़ी हो गई. स्वरचित- डॉ. कीर्ति पाण्डेय x