जिसको जिसकी कहनी थी

डॉ. कीर्ति पाण्डेय जिसको जिसकी कहनी थी वो कहते सुनते चले गये मेरी क ही रही मन के अंदर हम उलझन बुनते चले गये । राह मिली मंजिल कहा थी मंजिल थी तो राह नहीं मंजिल और रहों के बीच हम खुद को खोते चले गये। प्यास जगी तो नीर नहीं था नीर दिखा दरिया गहरा प्यास बूझाते कैसे हम डूबते तैरते चले गये।